थांरौ साथो घणो सुहावै सा…

30.12.11

एकेला उठावो थे जवानी रौ औ भार क्यूं : कवित्त

रामराम सा !
इण कड़कड़ा'ती ठंड-सर्दी रै मौसम में 
गरमागरम दाळ रौ सीरो अर बड़ा-पकौड़ा अरोगता थका 
औ मनहरण कवित्त बांचसो तो ठंड कीं तो कम लखासी 


एकेला उठावो थे जवानी रौ औ भार क्यूं

काजळिया-राता-लीला नैण लागै आछा गोरी ,
बणावो इंयां नैं घड़ी-घड़ी तलवार क्यूं ?
चावै बां'रै खून सूं मंडावो मांडणा ; मनावो
नैण-बाण मार' नित तीज क्यूं तिंवार क्यूं ?
प्रीत रा पुजारियां रै , दरस-भिखारियां रै
काळजै चलावो निज रूप री कटार क्यूं ?
राजिंद है दास थांरौ , आपे ई संभाळ लेसी
एकेला उठावो थे जवानी रौ औ भार क्यूं ?
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
(फोटू गूगल सूं साभार)
नुंवै साल 2012 री मोकळी मंगळकामनावां मानज्यो सा !

21.11.11

राजस्थानी देह - आत्मा राजस्थान्यां री है !

आ माता म्हांरी है !
आ माता म्हारी है बीरा, माता आ थारी है !
आ माता थारी है बैनड़, माता आ म्हारी है !
राजस्थानी आपां सगळा राजस्थान्यां री है !

आ भाषा म्हांरी है लोगां ! माता आ म्हांरी है !
राजस्थानी भाषा सगळा राजस्थान्यां री है !
राजस्थानी देह - आत्मा राजस्थान्यां री है !

नव दुर्गा ज्यूं इण माता रा रूप निजर केई आवै
मोद  बधावै  मेवाड़ी  मन  हाड़ौती  हरखावै
बागड़ी ढूंढाणी मेवाती मारवाड़ी है !
भांत भांत सिणगार सजायेड़ी आ रूपाळी है !
आ माता म्हारी है बीरा, माता आ थारी है ! !

गरब सूं गवरल ज्यूं मायड़ नैं माथै उखण्यां घूमां
चिरमी मूमल काछबो गावां, लड़ली लूमां झूमां
मीठी मिसरी आ भाषा सगळां सूं प्यारी है !
चांदड़लै री उजियाळी आ सूरज री लाली है !
आ माता थारी है बैनड़, माता आ म्हारी है ! !

वीर बांकुरां री बोली आ सेठ साहूकारां री
वाणी भगतां कवियां करसां राजां बिणजारां री
मरुधरती रो कण कण पग पग मा सिणगारी है !
बडो काळजो राखण वाळी निरवाळी न्यारी है !
आ माता म्हांरी है सुणज्यो, भाषा आ म्हांरी है !!

गरबीली ठसकै वाळी है , जबर मठोठ इंयै री
जद गूंजै; के कान ? खोलदै खिड़क्यां बंद हियै री
मत जाणीजो इण रा जायोड़ां में मुड़दारी है !
आज काल में हक़ लेवण री इब म्हांरै त्यारी है !
राजस्थानी देह - आत्मा राजस्थान्यां री है !!

मत करज्यो रे बै'म कै भायां सूं भाई न्यारा है
काळजियै री कोर है भाई आंख्यां रा तारा है
अणबण व्हो ; म्हैं जूदा नीं व्हांमन में धारी है !
सावचेत रे टकरावणियां ! जीत अबै म्हांरी है !
सावचेत रे टरकावणियां ! जीत अबै म्हांरी है !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
 


11.11.11

थे याद मोकळा आवो

प्रीत-ओळ्यूंड़ी
थे याद मोकळा आवो
नित-नित काळजियो हुमकावो सा !
जोबन री दियाळी सूं होळी
हिवड़ै म्हारै मंगळावो सा !!

थे छांनै-छांनै आय हौळै सूं मन रौ बारणो खटकावो !
म्हैं निजरां रै गोखै सूं झांकूं, जद कैंयां छिप जावो ?
बीजळड़ी ज्यूं लुक-छिप रमता
मनड़ै नैं क्यूं संतावो सा ?
थे याद मोकळा आवो

काळजियो सिळगै जेठ-अषाढ़ ज्यूं, नैणां बसग्यो चौमासो !
पो-माघ-पून ज्यूं आस मिलण री, हिवड़ै पतझड़-वासो !
थे फागणियै तरसावो क्यूं
सावणियै क्यूं सिळगावो सा ?
थे याद मोकळा आवो

म्हारै मनड़ै रै समदर में प्रीत-ओळ्यूंड़ी लेवै हबोळा !
ज्यूं चांदी-निपज्यै खेत में सोन चिड़कल्यां करै कलोळां !
बिन बरसी बादळी ज्यूं मत जावो
नैणां नेह सरसावो सा !
थे याद मोकळा आवो
- राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar

 भावार्थ
 बहुत याद आते हैं आप !

आप मुझे बहुत अधिक याद आते हैं ।
हमेशा मेरे कलेजे में हूक-हिलोरें जाग्रत करते रहते हैं ।
यौवन की दीवाली से हृदय में होली जलाते रहते हैं ।

आप चुपके-चुपके आ'कर मन का द्वार खटखटाते हैं । मैं नज़रों के झरोखे से झांकता/झांकती हूं तब छुप कैसे जाते हैं ? बिजली की तरह लुका-छुपी खेलते हुए आप मेरे मन को क्यों सताते हैं ?

मेरा कलेजा जेठ-आषाड़ की तरह सुलगता रहता है । आंखों में जैसे चौमासा बस गया है । आप मुझे फागुन में भी क्यों तरसाते हैं ? सावन में भी क्यों सुलगाते हैं ?

मेरे हृदय-सागर में प्रणय-स्मृतियां हिलोरे लेती रहती हैं ,
मानो भरपूर तैयार फसल वाले खेत में सोन चिरैयाएं किलोल कर रही हों । आप बिना बरसी हुई बदली की भांति चले मत जाइए ,
आंखों से प्रेम का सरस प्रदर्शन-आभास होने दें
बहुत याद आते हैं आप !

मित्रों ! रचना के भावों की आत्मा को सृजित रचना की भाषा को जान कर ही हूबहू पहचाना और अनुभव किया जा सकता है । फिर भी अपने पाठकों का बहुत मान करने के कारण मैं अक्सर अतिरिक्त श्रम करते हुए भावार्थ/शब्दार्थ लिखता रहता हूं  ताकि मेरे लिखे राजस्थानी गीत-ग़ज़लों-दोहों में मेरे रचनाकार को मिलने वाले सरस्वती के प्रसाद को आपके साथ न केवल बांट सकूं ,  वरन् राजस्थानी भाषा की सामर्थ्य से भी आपको साथ ही साथ परिचित करवा सकूं । )
मेरे हिंदी ब्लॉग पर दोहों के साथ ग़ज़ल सुनना न भूलें