थांरौ साथो घणो सुहावै सा…

24.10.11

बणजे मत तूं दुनिया ज्यूं आंधो स्वारथ में , सुण दीवा !

लिछमी नित किरपा करै , गणपति दै वरदान!
सुरसत री आशीष सूं बधै सवायो मान!!

एक गीतड़लो हाजर है सा
[diya[6].gif]  दीवटिया ! मत  डरजे ![diya[6].gif]

नैनी था’री बांवड़ल्यां अर नैनी-सी औकात रे !
लारै था’रै आंधड़-मेहलो , आगै झंझावात रे !
दीवटिया ! मत डरजे ; लड़जे , बळजे काळी रात रे !
रंग थनैं ! तूं ल्या मुट्ठी में सोनळिया परभात रे !

उलटी बैवै पून रे दीवा ! दिश-दिश खावण नैं आवै !
कळमष च्यारूंमेर ; घेर’ थनैं देख एकलो धमकावै !
रेशै-रेशै मांय बैर छळ कपट कुचालां घात रे !
दीवटिया ! मत डरजे : लड़जे , बळजे काळी रात रे !

आज अठै सूं लोप हुया रे , सत रौ साथ निभावणिया !
बस्ती-बस्ती बसै बनैला , मांस ’ऽर हाड चबावणिया !
आदमखोर अबै हुयगी रे , आ मिनखां री जात रे !
दीवटिया ! मत डरजे : लड़जे , बळजे काळी रात रे !

रात पछै दिन आवै , सूरज ऊगै , उजळ-उजास हुवै !
तद तक था’री झळ सूं दीवा ! दुखियारां नैं आस हुवै !
 के ओछी अर के लांबी रे… रात-रात री बात रे !
रंग थनैं ! तूं ल्या मुट्ठी में सोनळिया परभात रे !

तूं जळसी तो डील छीजसी परमारथ में , सुण दीवा !
बणजे मत तूं दुनिया ज्यूं आंधो स्वारथ में , सुण दीवा !
आस किणी री मत करजे , ओखो मिलणो संगात रे !
रंग थनैं ! तूं ल्या मुट्ठी में सोनळिया परभात रे !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
            गीत का भावार्थ        
ऐ दीपक ! नन्ही नन्ही तुम्हारी बाहें हैं , और छोटी-सी ही सामर्थ्य है । तुम्हारे पीछे आंधी और बरसात लगे हैं , तो आगे झंझावात ।
ऐ दीये ! तू डरना मत ! लड़ना और जलते रहना जब तक काली रात है !
तुम्हें शाबाशी है ! तुम्हारा आभार  है ! (रंग शब्द का बहुत व्यापक अर्थ है )
चल , तू अपनी मुट्ठी में सुनहरी प्रभात ले आ !
ऐ दीपक ! सजग रहना , यहां हवा  उल्टी बह रही है । दिशा-दिशा काटने को दौड़ती है । अकेला देख कर कल्मष चारों ओर से तुझे घेर कर धमकियां दे रहा है । रेशे-रेशे में बैर छल कपट कुचालें और घात है । लेकिन दीपक ! तू डरना मत ! लड़ना और काली रात के समाप्त होने तक जलते रहना ।
सत्य का साथ निभाने वाले आज यहां से लुप्त हो चुके हैं । अब बस्ती-बस्ती में मांस और हड्डियां चबा जाने वाले वनैले बस गए हैं । यह मनुष्यों की जाति अब आदमखोर हो चुकी है । लेकिन नन्हे दीपक ! तू मत डरना ! तू इस काली रात के समाप्त होने तक जलते रहना , लड़ते रहना  ।
याद रख , रात के बाद दिन आता है , सूर्य उगता है , उज्ज्वल प्रकाश होता है । …लेकिन तब तक तुम्हारी लौ से ही दुखितजन को कोई आशा होती है  , दीपक ! क्या छोटी और क्या लंबी ! रात-रात की ही तो बात है ।  बहुत उपकार होगा … तू अपनी मुट्ठी में सुनहरी प्रभात ले आ !
हां दीपक , सच है …तू जलेगा तो परमार्थ में तुम्हारे शरीर का अवश्य ही क्षरण होगा  । लेकिन तू दुनिया की तरह स्वार्थ में अंधा मत बन जाना । …और , किसी सहयोग-सहारे की तो आशा ही मत करना … क्योंकि यह बहुत दुर्लभ-दुष्कर है । फिर भी तुम्हारा बहुत आभार-उपकार !  ऐ नन्हे दीपक ! …तू अपनी मुट्ठी में सुनहरी भोर ले आ !
[diya[6].gif]गीतकार एवं अनुवादक : राजेन्द्र स्वर्णकार[diya[6].gif]
यह भावार्थ मेरे समस्त् अराजस्थानी प्रियजनों के लिए है 
ताकि आप मेरी रचना को अच्छी तरह समझ पाएं ।
साथ ही यह भी जान सकें कि मेरे राजस्थान में रहने वाले तथा अच्छी तरह राजस्थानी जानने-समझने वाले 
साहित्यिक मठाधीशों ने मेरी रचनाओं का अब तक कितनी ईमानदारी से मूल्यांकन किया है  !?

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 तो अबै आज्ञा दिरावो सा …
आप सब नैं
घणैमान रामाश्यामा !
*धनतेरस*रूपचौदस*दीयाळी*गोरधनपूजा*भाईबीज*
री
[diya[6].gif]मोकळी मंगळकामनावां ![diya[6].gif]