थांरौ साथो घणो सुहावै सा…

22.8.11

बनवारी गिरधारी माधव मोहन कृष्ण मुरारी

श्रीकृष्णजन्माष्टमी
री
घणी घणी बधाई
अर
मंगळकामनावां
जय जय लीलाधारी
बनवारी गिरधारी माधव मोहन कृष्ण मुरारी
गोपाळा नटनागर कान्हा केशव कुंजविहारी
जय नटवर जय देवकीनंदन चक्र सुदर्शनधारी
जय गोविंद कन्हैया सांवळ जय गोवर्धनधारी

तीन लोक रौ स्वामी भू पर लीला किरत रचायो
गाय चरायो , माटी खायो , मुख ब्रह्मांड दिखायो
धन धन धन महतारी... जय जय लीलाधारी

जमनाजी रै तट कान्हो गोप्यां संग रास रचायो
डाळ-कदंब राधा संग हींड्यो ; मुरली मधुर बजायो
मगन जीव-संसारी...  जय जय लीलाधारी

तार्'यो गोप्यां-गोप उधव विदुराणी-विदुर सुदामा
मार्'यो राखस नाग पूतना कंस सरीखा मामा
सिमरथ नैं के भारी... जय जय लीलाधारी

द्रुपद-सुता री टेर सुणी , बैकुंठ सूं दौड़्यो आयो
माण घटण नीं दियो सती रौ माण 'र चीर बधायो
थकग्या कामाचारी...  जय जय लीलाधारी

पारथ रौ रथ हांक्यो अर निज रूप विराट दिखायो
'मोह त्याग' निज कर्म करो' - गीता-उपदेश सुणायो
जगत हुयो आभारी... जय जय लीलाधारी

भगतां री पत राखण' दौड़्यो पग-उबराणो आवै
मोह-माया रा वस्त्र हरै , घट फोड़ै , मर्म बतावै
जगती रौ हितकारी... जय जय लीलाधारी

योगेश्वर निरवाळो-न्यारो , माया-मोह-रमणियो
भोळै भगतां रौ भीड़ी , भवसागर पार करणियो
सिंवरो सब नर-नारी... जय जय लीलाधारी
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar

4.8.11

चौमासै नैं रंग है !


 राजस्थानी में वर्षा ॠतु संबंधी म्हारा च्यार कवित्त बांचो सा
चौमासै नैं रंग है !
    
   


लागी बिरखा री झड़ , तड़ड़ तड़ड़ तड़ ,
बींज री कड़ड़ कड़ काळजो कंपावै है !
बादळिया भूरा-भूरा , बावळा हुया है पूरा ,
आंगणां सूं ले' कंगूरां ... उधम मचावै है !
दाता री हुई है मै'र , आणंद री बैवै लैर ,
मुळकै सै गांव-श्हैर ; उछब मनावै है !
धण सूं न आगो हुवै , कोई न अभागो हुवै ,
कंत - प्री रो सागो हुवै , मेह झूम गावै है !
झूमै नाचै छोरा छोर्ऽयां, सैन्यां सूं रींझावै गोर्ऽयां,
करै मनड़ां री चोर्ऽयां , रुत मनभावणी !
देश में नीं रैयो काळ , भर्ऽया बावड़्यां र ताळ ,
हींडा मंड्या डाळ-डाळ ; पून हरखावणी !
हिवड़ां हरख-हेत , सौरम रम्योड़ी रेत ,
हर्ऽया जड़ाजंत खेत , प्रकृति रींझावणी !
मुट्ठी-मुट्ठी सोनो मण , रमै राम कण-कण,
मोवै सूर री किरण , चांदणी सुहावणी !
मेळां रा निराळा ठाठ , रमझम बजारां हाट ,
मीठी छोटी छांट ... जाणै मोगरै री माळा है !
भोम आ लागै सुरग , मस्ती जागै रग - रग ,
तुरंग-कुरंग-खग  झूमै मतवाळा है !
डेडरिया टरर टर , बायरियो हहर हर ,
रूंख चूवै झर-झर , छाक्या नद-नाळा है !
मोरिया टहूकै, मीठी कोयल्यां कुहूकै ;
इस्यै मौसम में चूकै जका ... हीणै भाग वाळा है !
भोळो मल्हारां गावै , रास कान्हूड़ो रचावै ,
रति कम नैं रींझावै , चौमासै नैं रंग है !
रंगोळी मंडावै आभो , धरा पैरै नुंवो गाभो ,
करै दामणी दड़ाभो , मेघ कूटै चंग है !
धीर तोड़ै सींव , जीव - जीव करै पीव ,
रैवै रुत आ सदीव तद बिजोग्यां पासंग है !
आड़ंग रै अंग-अंग , उमंग-तरंग ,
रैवै निसंग राजिंद ऐड़ी किण री आसंग है ! 
-राजेन्द्र स्वर्णकार 
©copyright by : Rajendra Swarnkar

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 यहां एक बार अवश्य सुन कर देखें इस राजस्थानी रचना को 
सुणो सा अठै इण कवित्त नैं म्हारी बणायोड़ी खास धुन में म्हारी ही आवाज़ में    


- राजेन्द्र स्वर्णकार 
©copyright by : Rajendra Swarnkar
साची बतावो , आपनैं म्हारी बणायोड़ी आ धुन किस्यी'क लागी ?
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अनुवाद
पढ़ कर आप अवश्य ही रचना की आत्मा तक पहुंच पाएंगे 
चौमासै नैं रंग है ! 
नतमस्तक और आभारी हैं वर्षा ॠतु के प्रति  !

तड़तड़ाहट की ध्वनि के साथ बरखा की झड़ी लग गई है ।
आकाशीय बिजली की कड़कड़ाहट से कलेजा कंपायमान हो रहा है ।
 धूम्रवर्णी बादल पूर्णतः पगला गए हैं , 
( तभी तो )  
आंगन - आंगन से ले' कर कंगूरों - कंगूरों तक उपद्रव मचाते ' फिर रहे हैं ।
दयालु परमात्मा की अनुकंपा से हर्षोल्लास की लहर बह निकली है ।
( इसलिए ) 
सारे गांव - शहर  हंसते - मुस्कुराते उत्सव मना रहे हैं ।
ऐसे में कोई अपनी भार्या से दूर न हो । कोई भी अभाग्यवान न रहे ।
हर प्रियतम - प्रिया का संगम - समागम हो । मेघ झूम - झूम कर यही गान कर रहे हैं ।

वर्षा आगमन पर बालक - बालिकाएं झूम रहे हैं , नाच रहे हैं ।
नवयौवनाएं इशारों से विमोहित कर रही हैं , हृदय हरण कर रही हैं ।
 सच , यह ॠतु बहुत मनभावनी है ।
अब देश में अकाल नहीं रहा । सारी बावड़ियां और तालाब भर गए ।
 डाली - डाली पर झूले पड़ गए । अब हवा भी प्रसन्नता प्रदायक है ।
 हृदय - हृदय हर्ष और स्नेह से परिपूर्ण है । रेत में भी सुगंधि समा गई है । 
खेत - खेत हरियल फसलों से लकदक हैं । प्रकृति विमुग्ध कर रही है । 
धन धान्य की ऐसी प्रचुरता हो गई जैसे 
हर मुट्ठी में मण भर ( चालीस किलोग्राम ) स्वर्ण आ गया हो । 
कण - कण में ईश्वर का साक्षात् हो रहा है । 
 सूर्य - रश्मियां सम्मोहित कर रही हैं । 
चांदनी सुहानी प्रतीत होने लगी है ।

वर्षा ॠतु में मेलों के अपने निराले ठाठ बाट होते हैं । 
हाट - बाज़ारों में चहल-पहल हो जाती है ।
ऐसे में घर से बाहर , मेले-बाज़ार में नन्ही बूंदों की फुहार से सामना होने पर लगता है , 
जैसे मोगरे के नन्हे - सुगंधित फूलों की माला से स्वागत हो रहा है ।
धरती स्वर्ग लगने लगती है । 
अंग- अंग , नस - नस में मस्ती जाग्रत हो जाती है । 
मनुष्य ही क्या , सब छोटे - बड़े पशु - पक्षी … तुरंग , कुरंग , खग मतवाले हो'कर झूमने लगते हैं ।  
दादुर ( मेंढक ) टर्र टर्र करने लगते हैं । हवा के झोंके हहराने लगते हैं । 
फल - फूल से लकदक  वृक्षों से  सम्पदा चू'ने - झरने  लगती है । 
सब नदी - नाले छक जाते हैं ।  मयूर वृंद टहूकने लगते हैं । कोयल समूह मधुर स्वरों में कुहुकने लगते हैं । 
ऐसे मनोहारी मौसम में भी कोई इन सुखों से वंचित रहते हैं तो वे बहुत भाग्यविहीन हैं ।

वर्षा ॠतु में साक्षात् शिव भी मल्हारें गाते रहते हैं । 
रसज्ञ कृष्ण रास रचाते हैं ।  रति स्वयं कामदेव को रिंझाती है । 
ऐसे चौमासे को नमन है !  आभार है !  
धन्य है यह ॠतु , जब अंबर अल्पना और रंगोली सजाता है । 
वसुंधरा नवीन वस्त्र - परिधान पहनती है ।
दामिनि दमक कर गर्जना करती है । मेघ चंग पर  प्रहार करके जश्न मनाते हैं । 
ऐसे में धैर्य सीमा तोड़ने लगता है । 
प्राणिमात्र प्रिय - प्यास में प्रेमिल - प्रमुदित पाए जाते हैं । 
यही ॠतु सदैव सर्वदा रहे , 
तो वियोगीजन को वियोग के बराबर मात्रा में संयोग का संतुलन बनाने का  सुअवसर मिले ।  
वर्षा ॠतु , यहां तक कि उसके आगमन के संकेत मात्र के अंग - प्रत्यंग में भी उमंग - तरंग  विद्यमान है । 
कवि राजेन्द्र स्वर्णकार कहता है कि ऐसे में कोई निस्पृह - निस्संग रह ले , किसकी ऐसी सामर्थ्य है ?
- राजेन्द्र स्वर्णकार