आज दो हरिगीतिका छंद
बांचो सा

बणग्यो अमी; विष …प्रीत कारण, प्रीत मेड़तणी करी !
प्रहलाद-बळ हरि आप; नैड़ी आवती मिरतू डरी !
हरि-प्रीत सूं पत लाज द्रोपत री झरी नीं, नीं क्षरी !
राजिंद री अरदास सायब प्रीत थे करज्यो खरी !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
भावार्थ
प्रेम तो मेड़ता वाली मीरा ने किया, जिसकी प्रीति के कारण विष भी अमृत बन गया ।
प्रीति के कारण ही भगवान स्वयं बल-संबल बन गए तो मृत्यु भी प्रह्लाद के समीप आने से डरती रही ।
परमात्मा से प्रीति के पुण्य से ही द्रोपदी की प्रतिष्ठा और लज्जा क्षत-आहत अथवा भंग नहीं हुई ।
हे सुजन ! राजेन्द्र की आपसे प्रार्थना है कि आप प्रीत करें तो सच्ची प्रीत करें ।

बिन प्रीत बस्ती सून : पाणी मांय तड़फै माछळ्यां !
थे प्रीत-धूणो ताप’ रोही मांय गावो रागळ्यां !
इण प्रीत रै परभाव बणसी सैंग कांटां सूं कळ्यां !
घर ज्यूं पछै लागै परायी स्सै गुवाड़्यां, स्सै गळ्यां !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
भावार्थ
प्रेम न हो तो बस्ती भी सुनसान प्रतीत होती है । बिना प्रेम पानी में भी मछली प्यासी तड़पती रहती है ।
आप प्रीत के धूने की आंच तपने के बाद , हर सुख सुविधा से वंचित निर्जन रोही में भी मस्ती में झूमते-गाते रहते हैं ।
प्रेम के प्रभाव से सारे कांटे कलियां बन जाते हैं ।
मन में प्रेम-भाव हो , तो पराई गलियां-मुहल्ले , सारा संसार ही अपना घर लगने लगता है ।


बणग्यो अमी; विष …प्रीत कारण, प्रीत मेड़तणी करी !
प्रहलाद-बळ हरि आप; नैड़ी आवती मिरतू डरी !
हरि-प्रीत सूं पत लाज द्रोपत री झरी नीं, नीं क्षरी !
राजिंद री अरदास सायब प्रीत थे करज्यो खरी !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
भावार्थ
प्रेम तो मेड़ता वाली मीरा ने किया, जिसकी प्रीति के कारण विष भी अमृत बन गया ।
प्रीति के कारण ही भगवान स्वयं बल-संबल बन गए तो मृत्यु भी प्रह्लाद के समीप आने से डरती रही ।
परमात्मा से प्रीति के पुण्य से ही द्रोपदी की प्रतिष्ठा और लज्जा क्षत-आहत अथवा भंग नहीं हुई ।
हे सुजन ! राजेन्द्र की आपसे प्रार्थना है कि आप प्रीत करें तो सच्ची प्रीत करें ।

बिन प्रीत बस्ती सून : पाणी मांय तड़फै माछळ्यां !
थे प्रीत-धूणो ताप’ रोही मांय गावो रागळ्यां !
इण प्रीत रै परभाव बणसी सैंग कांटां सूं कळ्यां !
घर ज्यूं पछै लागै परायी स्सै गुवाड़्यां, स्सै गळ्यां !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
भावार्थ
प्रेम न हो तो बस्ती भी सुनसान प्रतीत होती है । बिना प्रेम पानी में भी मछली प्यासी तड़पती रहती है ।
आप प्रीत के धूने की आंच तपने के बाद , हर सुख सुविधा से वंचित निर्जन रोही में भी मस्ती में झूमते-गाते रहते हैं ।
प्रेम के प्रभाव से सारे कांटे कलियां बन जाते हैं ।
मन में प्रेम-भाव हो , तो पराई गलियां-मुहल्ले , सारा संसार ही अपना घर लगने लगता है ।

हरिगीतिका छंद रै बारे में
हरिगीतिका छंद एक मात्रिक सम छंद है ।
औ छंद कुल चार चरणां/पंक्तियां में पूरो हुवै ।
च्यारूं चरणां में १६+१२=२८ मात्रा हुवै ।
१६वीं मात्रा पर यति / ठहराव / बिसांई रौ नियम है ।
हर दो पंक्तियां में तुक मिलणी जरूरी है,
च्यारूं चरणां/पंक्तियां में तुक मिलै तो घणी फूठरी बात !
हर चरण रै अंत में लघु गुरु (१२) जरूरी है ।
भारतीय काव्य शास्त्र रै हर बीजा मात्रिक छंदां ज्यूं ही इण छंद में भी उर्दू/फ़ारसी रा छंदां ज्यूं हर्फ़/अक्षर/वर्ण री मात्रा कम-बेसी करणी वर्जित है ।
इण छंद री लय/राग और बेसी इंयां समझी जा सकै
जयरामजी, जयरामजीजय = १६
रामजी, जयरामजी = १२
ल–ल–गा–ल–गा, ल–ल–गा–ल–गा-ल–ल =१६
गा–ल–गा, ल-ल-गा–ल–गा = १२
१+१+२+१+२, १+१+२+१+२+१+१ = १६
२+१+२, १+१+२+१+२ = १२
या इंयां
श्रीरामजी, श्रीरामजीश्री = १६
रामजी, श्रीरामजी = १२
गा-गा-ल-गा, गा-गा-ल-गा-गा = १६
गा-ल-गा, गा-गा-ल-गा = १२
२+२+१+२, २+२+१+२+२ = १६
२+१+२, २+२+१+२ = १२

साथ्यां !
आप जे इण छंद बाबत या बीजै किणी
छंद बाबत
कोई बात म्हनैं पूछणी चावो तो
स्वागत है...
बताणी चावो तो सवायो स्वागत है
।
ठोस सिरजण पेटै कीं बंतळ तो
हुवै...
मिलसां बैगा ई ...
मोकळी मंगळकामनावां !
मोकळी मंगळकामनावां !