ल्यो सा एक ग़ज़ल
क्यूं मनड़ै नैं मारो हो
क्यूं बैर्’यां रा काळजिया
मुंह लटकायां ठारो हो
देखो मुळकै चांदड़लो
किण नैं आप निहारो हो
बा मंज़ल हेलो पाड़ै
किण दिश आप सिधारो हो
समदर मरुथळ स्सै लांघ्या
थे इब कांईं धारो हो
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra
Swarnkar
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भावार्थ
( मेरे
हिंदीभाषी मित्रों के लिए )
ऐसे
क्या जी (हिम्मत ) हार रहे हो ?
क्यों
मन को मार रहे हो ?
मुंह
पर उदासी ला’कर
क्यों
दुश्मनों के कलेजों को ठंडक पहुंचा रहे हो ?
देखो
, चंद्रमा मुस्कुरा रहा है
…तुम
किसे निरख रहे हो ?
वह
मंज़िल पुकार रही है ,
तुम
किस दिशा में जा रहे हो ?
समुद्र-रेग़िस्तान
सब लांघ चुके
…अब
तुम्हारे लिए क्या असंभव है ?
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…तो साथीड़ां ! विदा लेवण सूं
पैलां
अंग्रेजी नूंवै बरस 2013 री मंगळकामनावां
!
मिलसां भळै
जय रामजी री सा